Friday, December 7, 2018

ग़ज़ल

किसी मासूम ख़्वाहिश को तड़पता छोड़ आये हैं
हम अपने इश्क़ का क़िस्सा अधूरा छोड़ आये हैं

तुम्हारे साथ बचपन में जो खेले थे कभी हमने
वो सारे खेल वो बचपन अकेला छोड़ आये हैं

वो दरिया के किनारों पर तुम्हारा नाम लिख देना
तुम्हारा नाम, दरिया और किनारा छोड़ आये हैं

वही गुमनाम क़िस्सा जिसके दो किरदार थे हम तुम
मोहल्ले की किसी खिड़की में रक्खा छोड़ आये हैं

तेरी बेताब नज़रों में अजब एक शय थी सो उसको
किसी मिसरे की धड़कन में धड़कता छोड़ आये हैं

वो सावन की हसीं रिमझिम वो सोंधी ख़ुशबुएँ ज़ालिम
तेरी महकी हुई ज़ुल्फों में उलझा छोड़ आये हैं

वो जो इक रब्त था अपना वो इक जो बेक़रारी थी
तेरे शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर निखरता छोड़ आये हैं

वो सारे शेर थे तुमसे वो सारी नज़्म थीं तुमसे
हम अपनी ज़ीस्त का मिसरा अधूरा छोड़ आये हैं

No comments:

Post a Comment