Tuesday, February 26, 2019

ग़ज़ल

रँग ख़ुशबू के चमन में भर के
उम्र काटी यूँ चरागाँ कर के

रुत बदल डाली एक झटके में
उसने फूलों को इशारा कर के

उनको नज़रें बचा के देखते हैं
उनपे मरते हैं यार डर डर के

आज एक फूल और सूख गया
तुमने देखा नहीं नज़र भर के

जितने करने हैं सितम कर डालो
हम न आएँगे दोबारा मर के

मैंने एक बार इल्तजा की थी
उसने भेजी सज़ाएँ जी भर के

उसने फिर मीर का दीवान दिया
हम बदलने लगे चश्मे नज़र के

कहीं दो बात कर लें, चाय पी लें
भुला दें रंज अपने उम्र भर के

ग़ज़ल

विसाल ओ हिज्र की हद से गुजरना चाहा था
मेरी ग़ज़ल ने अभी रुख़ बदलना चाहा था

ये कौन है जो शहीदों में ज़िक्र करता है
हमारे इश्क़ ने गुमनाम मरना चाहा था

तुम्हारी शबनमी रातों में उजालों के लिए
बस इक चराग़ की मानिंद जलना चाहा था

सुबह की सेज पे जब धूप ने ली अंगड़ाई
सो आफ़ताब को आगोश करना चाहा था

तुम्हारे हिज्र ने क्या क्या न रँग दिखलाए
शब ए फ़िराक़ में सौ बार मरना चाहा था

तेरी तस्वीर बनाए नहीं बनती मुझसे
हरेक रँग ने तुझमें उतरना चाहा था

ख़ुदा रक़ीबों को हर गाम सलामत रक्खे
मुझे गिरा के उन्होंने सँभलना चाहा था