शाख़ पे फिर वो मुस्कुराया है
वस्ल का दिन क़रीब आया है
आज फिर नज़्म कोई छेड़ी है
सारे आलम पे तू ही छाया है
मुझसे पहलू बचा के चलता है
कितना बेदर्द तेरा साया है
ख़ामोशी इख़्तियार क्यूँ कर ली
जाँ निसारी का वक़्त आया है
साहिर ओ फ़ैज़ की दो चार किताब
अब यही कुल मेरा सरमाया है
कितने यारों का कर्ज़ बाक़ी है
किसकी जानिब से संग आया है
इक तमन्ना सवाल करती है
दूर कितना है जो पराया है