Friday, March 23, 2018

ग़ज़ल

शाख़ पे फिर वो मुस्कुराया है
वस्ल का दिन क़रीब आया है

आज फिर नज़्म कोई छेड़ी है
सारे आलम पे तू ही छाया है

मुझसे पहलू बचा के चलता है
कितना बेदर्द तेरा साया है

ख़ामोशी इख़्तियार क्यूँ कर ली
जाँ निसारी का वक़्त आया है

साहिर ओ फ़ैज़ की दो चार किताब
अब यही कुल मेरा सरमाया है

कितने यारों का कर्ज़ बाक़ी है
किसकी जानिब से संग आया है

इक तमन्ना सवाल करती है
दूर कितना है जो पराया है