Saturday, April 16, 2016

इक ख़त

हां मुझे इक नज़्म का मिसरा मिला है
तुम्हारी नज़्म में
उन सुनहरे आबशारों का तो कोई ज़िक्र ही न था
जो कड़े वक़्त में भी मेरी ज़बीं पर
साया करते थे
कलाई के उस कंगन का भी नाम ओ निशाँ न था
कि जिसमें उलझ कर तुम्हारी रेशमी साड़ी का पल्लू
सबा के इक इशारे पर मुझे महका सा जाता था
अपने माथे की बिंदी का भी तो तुम ज़िक्र करतीं
तुम्हारी मांग में अफ़शाँ क्या अब भी रक़्स करता है
क्या अब भी ज़िक्र ए माज़ी पर
तुम्हारी आँख में कुछ कुछ चमकता है

तुम्हारी नज़्म में कुछ बात बाक़ी थी
मैं अपनी नज़्म में तुमको मुक़म्मल कर रहा हूँ
16 Apr 2016