Friday, December 7, 2018

ग़ज़ल

आईना दिल बिखर गया शायद
ज़ख़्म आँखों में भर गया शायद

आप आए हैं बड़ी देर के बाद
वस्ल का दिन गुज़र गया शायद

ज़ख़्म जो रूह पर लगा था कभी
हिज्र लम्हों में भर गया शायद

आपकी बेवफ़ाई का ख़ंजर
दिल में गहरा उतर गया शायद

इश्क़ लम्हे का ज़िक्र रहने दो
इश्क़ लम्हा गुज़र गया शायद

वो जो लम्हों में रँग भरता था
वो सुख़नवर तो मर गया शायद

वो जो बहता था इश्क़ का दरिया
आँसुओं में उतर गया शायद

ग़ज़ल

किसी मासूम ख़्वाहिश को तड़पता छोड़ आये हैं
हम अपने इश्क़ का क़िस्सा अधूरा छोड़ आये हैं

तुम्हारे साथ बचपन में जो खेले थे कभी हमने
वो सारे खेल वो बचपन अकेला छोड़ आये हैं

वो दरिया के किनारों पर तुम्हारा नाम लिख देना
तुम्हारा नाम, दरिया और किनारा छोड़ आये हैं

वही गुमनाम क़िस्सा जिसके दो किरदार थे हम तुम
मोहल्ले की किसी खिड़की में रक्खा छोड़ आये हैं

तेरी बेताब नज़रों में अजब एक शय थी सो उसको
किसी मिसरे की धड़कन में धड़कता छोड़ आये हैं

वो सावन की हसीं रिमझिम वो सोंधी ख़ुशबुएँ ज़ालिम
तेरी महकी हुई ज़ुल्फों में उलझा छोड़ आये हैं

वो जो इक रब्त था अपना वो इक जो बेक़रारी थी
तेरे शफ़्फ़ाफ़ चेहरे पर निखरता छोड़ आये हैं

वो सारे शेर थे तुमसे वो सारी नज़्म थीं तुमसे
हम अपनी ज़ीस्त का मिसरा अधूरा छोड़ आये हैं

ग़ज़ल

याद ए माज़ी के वरक़ और सितम ख़ुशबू का
बारहा देखा है हमने ये करम ख़ुशबू का

शब ए तन्हाई में यादों की किरन बिखरे तो
चाँद लगता है तरफ़दार सनम ख़ुशबू का

तुम्हारी आहटों की मुन्तज़िर शामों की गलियों में
टूटता है मिसाल ए अश्क़ भरम ख़ुशबू का

बाग़ में इस क़दर फूलों को न तकते रहना
गर्मी ए शौक़, निकल जाए न दम ख़ुशबू का

शाम होती है तो दिल डूबने लगता है कहीं
ज़ीस्त पे तारी है अफ़साना ए ग़म ख़ुशबू का

सुर्ख़ डोरों में क़यामत का हश्र बरपा है
तुमने देखा है कभी दीद ए नम ख़ुशबू का

- सुख़नवर

ग़ज़ल

वो बारिशों का हसीन मंज़र, तुम्हारी नज़रें झुकी झुकी सी
वो मेरा लहजा नया नया सा, तुम्हारी साँसें रुकी रुकी सी

उदास शामों की नर्मियों में वो सर्द रातों की सिलवटों में
तुम्हारी आहट की मुन्तज़िर हैं हमारी धड़कन थमी थमी सी

ज़मीन ए दिल पर चराग़ लम्हों का शामियाना बिछा रही हैं
तुम्हारी नज़रों की बेक़रारी, वो मुस्कुराहट दबी दबी सी

समाअतों में गूँजते है अभी तलक वो विसाल मौसम
तुम्हारी आवाज़ के नर्म साये, तुम्हारी सूरत खिली खिली सी

चलो कहीं और चल के बैठें, जगाएं सोई रुतों को जानाँ
पुकारती हैं तुम्हारे क़दमों को शाहराहें मिटी मिटी सी

गुलाब मौसम में साहिलों पर तुम्हारे हमराह चलते रहना
वो नज़्म लिखना तुम्हें सुनाना, है एक ख़्वाहिश दबी दबी सी

- सुख़नवर

ग़ज़ल

फ़िराक़ लम्हों में दिल की शमां जलाते हुए
संभल रहे थे अबस हम फ़रेब खाते हुए

इश्क़ लम्हों में हुईं चाँद से बातें अक्सर
हुई हैं नज़्म कई यूँही गुनगुनाते हुए

मिली थी रास्ते में इक सुनहरी शाम हमें
तुम्हारे शहर की गलियों से अबके जाते हुए

पड़ा है दाग़ के और फ़ैज़ के अंदाज़ से पाला
ग़ज़ल रस्तों पे नए रंग आज़माते हुए

तमाम रात मेरी तिश्नगी उदास रही
इक नदी सूख चली थी यूँही बलखाते हुए

उन्हीं बेदर्द किस्सों में हमारे हिज्र की बातें
बिखर गई थी वो एक दास्ताँ सुनाते हुए

अब कहाँ जाएँ तेरी याद से वाबस्ता क़दम
दयार ए हिज्र में हर गाम लड़खड़ाते हुए

- सुख़नवर

Monday, October 22, 2018

तर्क़ ए तअल्लुक़

हमने देखा है वो एक रब्त ए शनसाई भी
जब तेरी आँख ने झुककर ये कहा था मुझसे
और कुछ देर ज़रा बैठो फिर चले जाना

वगरना रात ये ख़ामोश, ढल न पाएगी
जो तीरगी मेरी आगोश में फैली है सुनो,
वो लम्हा लम्हा मुक़द्दर पे फैल जाएगी
और कुछ देर ज़रा बैठो फिर चले जाना

अभी क़रार मेरे दिल को ज़रा आना है
अभी तो रोशनी होगी चराग़ दहकेंगे
अभी तो चाँद निकलने में वक़्त है थोड़ा
अभी तो चाँदनी बिखरायेगी महताब का नूर
फिर उसके बाद मेरे ज़ख़्म पर मरहम रखना
और कुछ देर ज़रा बैठो फिर चले जाना

वो देखो कल ही शाख़ पर गुलाब आया है
तुम्हें पसन्द है ना
वो देखो सहन में अनार के दरख़्त पर
नई कलियां खिली हैं
वो देखो क्यारियों में अनगिनत तितली महकती हैं
वो कोयल गीत गाती है, वो चिड़िया चहचहाती हैं
और कुछ देर ज़रा ठहरो फिर चले जाना

वो देखो आसमां के आख़िरी किनारे पर
उन सितारों को देखो तुम
हमेशा साथ रहते हैं, मगर ये मिल नहीं पाते
हमेशा हिज्र में सिमटे तवाफ़ करते हैं
ये मिलना चाहते होंगे मगर उनकी भी दुनिया में
रवायत ओ रिवाज़ों की कड़ी ज़ंजीर के साये
उन्हें जकड़े हुए होंगे
और कुछ देर ज़रा ठहरो फिर चले जाना

"बहुत सा दर्द है दिल में जो कहना चाहती हो तुम"
मेरा सवाल अचानक था, सो रुक गई थीं तुम
तुम्हारी बेबसी आँखों में छलक आई थी
मैं जानता था तुम्हारी फ़िज़ूल बातों को
तुम्हारे चाँद के क़िस्से, गुलाब रातों को
तुम अपने हिज्र के लम्हों को गिन रही थीं ना
मैं अपनी ज़ात की सब किरचियाँ संभाले हुए
फ़िराक़ रस्तों के बेनाम सफ़र पर तन्हा
भटक रहा हूँ इक मिस्ल ए आरज़ू ए सराब

Friday, March 23, 2018

ग़ज़ल

शाख़ पे फिर वो मुस्कुराया है
वस्ल का दिन क़रीब आया है

आज फिर नज़्म कोई छेड़ी है
सारे आलम पे तू ही छाया है

मुझसे पहलू बचा के चलता है
कितना बेदर्द तेरा साया है

ख़ामोशी इख़्तियार क्यूँ कर ली
जाँ निसारी का वक़्त आया है

साहिर ओ फ़ैज़ की दो चार किताब
अब यही कुल मेरा सरमाया है

कितने यारों का कर्ज़ बाक़ी है
किसकी जानिब से संग आया है

इक तमन्ना सवाल करती है
दूर कितना है जो पराया है