फ़िराक़ लम्हों में दिल की शमां जलाते हुए
संभल रहे थे अबस हम फ़रेब खाते हुए
इश्क़ लम्हों में हुईं चाँद से बातें अक्सर
हुई हैं नज़्म कई यूँही गुनगुनाते हुए
मिली थी रास्ते में इक सुनहरी शाम हमें
तुम्हारे शहर की गलियों से अबके जाते हुए
पड़ा है दाग़ के और फ़ैज़ के अंदाज़ से पाला
ग़ज़ल रस्तों पे नए रंग आज़माते हुए
तमाम रात मेरी तिश्नगी उदास रही
इक नदी सूख चली थी यूँही बलखाते हुए
उन्हीं बेदर्द किस्सों में हमारे हिज्र की बातें
बिखर गई थी वो एक दास्ताँ सुनाते हुए
अब कहाँ जाएँ तेरी याद से वाबस्ता क़दम
दयार ए हिज्र में हर गाम लड़खड़ाते हुए
- सुख़नवर
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