Sunday, June 28, 2015

कोई मंज़र उभरता है

मेरे ख्वाबों की रौशनी में
जब भी कोई मंज़र उभरता है
तो सोचता हूँ
कि उस मंज़र के पार
जो चेहरा नज़र आता है
वो कौन है
वो कौन सी शय है
जो मुझे लगातार बेचैन करती है
और मैं नए मंज़र की तलाश में
नए ख्यालों की रौशनी बुनता हूँ
और हर बार तेरी निगाहों की ज़द में
खुद को पाता हूँ
नए ख्वाबों की खुशबू में
ख़ुद को महकाता हूँ
पर चाह कर भी आज तक
भूल नहीं पाया हूँ
उन ख्वाबों को, उन निगाहों को
2009

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