Friday, December 1, 2017

आलम ए तन्हाई

आज फिर कूचा ए जानाँ में रक़्स करता हुआ
एक आवारा मुसाफ़िर की तरह गुज़रा है
वो एक नाम पशेमाँ हुआ था जिसपे तू
वो एक रंग जो गालों पे कभी उभरा था
वो हमकलाम तेरा, नक़्श ए जबीं था जो कभी
जो तेरे दिल की रियासत का शाहज़ादा था
तेरी ख़ुशबू से बंधा था कि जिसका हर लम्हा
तेरी तवीलतर रातों का इक सितारा था
जो तेरे बाग़ में खिलता था फूल की सूरत
बिखर गया है वो सूखे गुलाब की तरह
जो चाहतों का तेरी इक अकेला मरकज़ था
लुटा चुका है वो सरमाया ए जाँ तेरी ख़ातिर

वो जो इक वक़्त में महफ़िल की जान होता था
वो तेरे बाद बहुत कम किसी से मिलता है
अब उसे फ़र्क़ कहाँ कब किसी से पड़ता है
कि उसके पास बचा कोई नहीं कोई नहीं
वादी ए इश्क़ में मिस्ल ए ग़ुबार उड़ता है
वो जिसका तेरे सिवा कोई नहीं कोई नहीं

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