Wednesday, December 27, 2017

मुहब्बत की आख़िरी शाम

मुहब्बत की वो आख़िरी शाम
तुम्हारी मुन्तज़िर आँखें
सुलगते होंठ आतिशी रुख़सार
मुंडेरों पर लटकती फूल की शाखें
महकता जिस्म बिखरते गेसू
लाल रंगों में नहाई हुई तुम
और हद दर्ज़ा बिखरता हुआ मैं
मेरी बाहों में समाई हुई तुम
और हर आन लरज़ता हुआ मैं
तेरी आँखों से बरसते वो शबनमी आँसू
अपनी आहों के अलाव में सुलगता हुआ मैं
लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ ख़त्म होती वो कहानी भी
साँस दर साँस ख़त्म होती ज़िंदगानी भी

साल दर साल बिछड़ना था जिसके दामन में
वो शाम
ऐसा ही इक रिश्ता छोड़ गई थी हमारे दरमियाँ
जिसकी डोर थामे हुए
जाने कितने जन्मों का हिज्र काटना है मुझे
अगर मुमकिन हो
मेरी सज़ा मुख़्तसर कर दो
अगर मुमकिन हो

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