मुहब्बत की वो आख़िरी शाम
तुम्हारी मुन्तज़िर आँखें
सुलगते होंठ आतिशी रुख़सार
मुंडेरों पर लटकती फूल की शाखें
महकता जिस्म बिखरते गेसू
लाल रंगों में नहाई हुई तुम
और हद दर्ज़ा बिखरता हुआ मैं
मेरी बाहों में समाई हुई तुम
और हर आन लरज़ता हुआ मैं
तेरी आँखों से बरसते वो शबनमी आँसू
अपनी आहों के अलाव में सुलगता हुआ मैं
लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ ख़त्म होती वो कहानी भी
साँस दर साँस ख़त्म होती ज़िंदगानी भी
साल दर साल बिछड़ना था जिसके दामन में
वो शाम
ऐसा ही इक रिश्ता छोड़ गई थी हमारे दरमियाँ
जिसकी डोर थामे हुए
जाने कितने जन्मों का हिज्र काटना है मुझे
अगर मुमकिन हो
मेरी सज़ा मुख़्तसर कर दो
अगर मुमकिन हो
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