Thursday, July 20, 2017

पहला तोहफ़ा

तुम्हे याद है अब भी
वो सफ़ेद लिबास
कितनी चाह से तुमने पहना था

तुम्हे याद है अब भी
मेरे चेहरे का वो बुझता मंज़र
सफ़ेद रंग मुझे नापसंद है
तुम्हे मालूम था शायद

तुम्हे याद है अब भी
मैं कुछ भी तो नहीं बोला
और तुम दो मिनट रुकने का कहकर
ख़ामोशी से पलट गई थीं
और जब लौट कर आयीं
तो...
वो सितारों वाली काली साड़ी
तुमपे कितनी अच्छी लगती थी

तुम्हे याद है अब भी
कि उस दिन पहली बार
तुम्हारे माथे पर अपने प्यार के कच्चे रँग से
नज़्म के दो मिसरे लिक्खे थे
शायद तुमको याद हो अब भी

लेकिन मुझको याद है अब भी
उन हेज़ल आँखों मे कुछ क़तरे आँसू के
उन होठों पर नर्म कँपकँपी
शर्म ओ हया के गुलाब मौसम

शायद तुमको याद नहीं हो
लेकिन मुझको याद है अब भी

3 comments:

  1. वाह ! क्या नज़्म सजाई है
    नज़्म के दो मिसरे कमाल हुआ है भाई साहब 👌👌👌

    ReplyDelete
  2. ख़ूबसूरत..डूबता चला गया हर मिसरे के साथ

    शायद तुमको याद नहीं हो
    लेकिन मुझको याद है अब भी

    ReplyDelete
  3. वाहःहः
    क्या कहने ।

    ReplyDelete